Wednesday, August 4, 2010

स्वतंत्र भारत

१५ अगस्त १९४७ दिन शुक्रवार को दो सौ सालों से जंजीरों में कैद भारत आज अपनी बेड़ियों को तोड़ कर आज़ादी क़ा जश्न मना रहा है, खुली फिजा में सांश ले रहा है। आज मौसम भी बहुत सुहाना है, नीले आसमान में परिंदे चहलकदमी कर रहे है, सूर्य कि लाल किरणे अँधेरे को चीरती हुई उजाले का प्रकाश बिखेर रही है और भारत को निरंतर आगे बढ़ने का संदेस दे रही है। हर तरफ ढोल और नगाड़े कि आवाज़ सुनाई दे रही है मन-मयूर झुमने को विवश कर रहा है। सड़कों पर भीड़ ही भीड़ नज़र आ रही है हर चेहरों पर एक मुस्कान है जो यह जताता है कि गुलामी से मुक्ति के बाद खुली हवा में सांश लेने का अहसाश ही कुछ और है। आज हम स्वतंत्र है, हमारे हाथो और पावों की बेड़ियाँ कट चुकी है, जिस चहरे को देखो, अबीर-गुलाल लगाये खुशियाँ मना रहा है, मनो होली मना रहा हो, संध्या होते ही लोगों ने अपने घरों के मुरेड पर घी का दीप जलाने लगे है जैसे दीवाली मना रहे हो। कुछ ऐसा ही दृश्य रहा होगा जिस दिन भारत को आज़ादी मिली थी। इस आज़ादी को पाने के लिए कितने लोगों ने कुर्बानियां दी है, कितनी यातनाये सही है, तब जाकर भारत को आज़ादी मिली है। लेकिन उस आज़ादी का फायदा अगर किसी को मिला है तो वह हमारे राजनेताओं और पूंजीपतियों को। आज देश में समानता नहीं है इसलिए अमीरी और गरीबी के बीच एक गहरी खाई है जिसे कोई भी राजनेता या कोई भी पार्टी इसे पाटने कि कोशिश नहीं कि, इसका खामियाजा आज देश को भुगतना पड रहा है। आतंकवाद, नक्सलवाद इसी का देन है। भारत कृषि प्रधान देश है लेकिन कृषि को उद्योग का दर्जा नहीं मिला, अगर उद्योग का दर्जा मिला होता तो आज किसान एक अच्छी जिंदगी बसर करते, गाँव के लोगों का पलायन शहरों में नहीं होता। आज गाँव के किसान ही शहरों में मजदूरी करते है, ढेला, रिक्शा और ऑटो रिक्शा चलाते है। अगर गाँव में रोजगार होता तो गाँव के लोग शहर कभी नहीं जाते। सत्ता पर आशिन कोई भी पार्टी इस पर ध्यान नहीं दिया। आज देश को आज़ादी मिले ६३ साल हो गया लेकिन देश कि पूरी आबादी अभी भी पूरी तरह साक्षर नहीं है, क्या हमारे राजनेतावों कि यह चुक नहीं ? अभी भी बहुत से ऐसे गाँव है जहाँ बिजली, पानी, सड़क, स्कूल कुछ भी नहीं है फिर भी वहां के लोग इसे नियति मान कर जी रहे है। इन लोगों को यह भी नहीं मालूम कि ये आज भी गुलाम है या आज़ाद है क्यों कि इनके जीवन में आज़ादी के बाद भी कोई तब्दीलियाँ नहीं आई। क्या हक बनता है इन राजनेताओं को उन लोगों से वोट लेने का ? जब आप उन्हें कुछ भी सुविधा नहीं दे सकते है तो किस हक से आप उनसे वोट मांगते है। बिहार कि आधा से ज्यादा आबादी हर साल बाढ़ के चपेटे में आती है, गाँव के गाँव बाढ़ में बह जाते है, जान-माल कि जो छति होती है सो अलग। जिसका सब कुछ बर्बाद हो जाता है कुछ भी उसके पास नहीं रहता वो शहर के लिए पलायन करता है, शहर में भी उसे काम नहीं मिलता, अंत में जीने के लिए वह भीख मांगने लगता है, इस तरह भिखारियों कि संख्या हर साल बढती जाती है। क्या सरकार ने राजनेतावों ने कभी इस पर ध्यान दिया है ??? नहीं,,, अगर ध्यान दिया होता तो बाढ़ के पानी का रूख बदल दिया गया होता और जो पानी आज कहर बन कर आता है वो खेतों में सिंचाई के काम आता, खेतों में फसलें लहलहाती। बाढ़ में सब कुछ गंवाए हुए लोगों को ये राजनेता चना, सत्तू, चुरा, नमक और कपडे बांटते है ताकि तुम मर-मर के जीते रहो और मुझे वोट देते रहो। तुम चुरा और नमक पर अपनी जिंदगी गुजरो ताकि मै मलाई खा सकूँ।
हमारे देश के राजनेतावों कभी तो इस देश को अपना समझो, जिसके वोट से तुम सत्ता कि सीढियाँ चढ़ते हो, उसके दुःख-दर्द को तो समझो। क्यों कि जनता है, तो तुम हो ..... अगर जनता नहीं है तो तुम भी नहीं हो !
[ फोटो में गरीब लड़का तिरंगा झंडा बेच रहा है ताकि पेट कि भूख मिटा सके ] यह स्वतन्त्रता नहीं ?

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