Friday, August 27, 2010

टूटते दरख़्त

संयुक्त परिवार अब बीते ज़माने कि बात लगने लगी है। आज का पढ़ा-लिखा इंसान संकीर्ण विचार का हो गया है। उसकी सोंच इतनी छोटी हो गई है कि, उसने जीने का दायरा भी छोटा कर लिया है। अब परिवार का मतलब होता है पति-पत्नी और उनके द्वारा उत्पन्न बच्चे। ऐसे छोटे परिवार बड़े शहरों में बहुत तायदाद में मिलेंगे, क्यों कि बड़े शहरों में पढ़े-लिखे लोगों कि संख्या ज्यादा है। पढने के बाद लोगों के विचार बड़े होते है सोंच बड़ी होती है उनके दायरे बड़े होते है लेकिन परिवार के नाम पर उनकी सोंच छोटी हो जाती है। उनके दायरे सिमट कर इतनी छोटी हो जाती है कि पत्नी और बच्चे तक ही सिमित रह जाती है। अब बड़े शहरों में संयुक्त परिवार न के बराबर ही देखने को मिलेगा, लेकिन अभी भी गाँव और कश्बो में संयुक्त परिवार ही ज्यादातर मिलेगा, क्यों कि गाँव और कश्बो में पढ़े-लिखे लोगों कि संख्या कम है। उनका जीने का दायरा बहुत बड़ा है, उनके विचार बहुत बड़े है वो दिल से बहुत ही अमीर है। वो एक बड़े परिवार के लिए लिए जीते है उस परिवार में दादा-दादी, माता-पिता, भैया-भाभी, भाई-बहन, फुआ, छोटे भाई कि पत्नी और छोटे-छोटे हम सभी के बच्चे। सभी का आपस में प्यार, मिल-जुल कर रहना, जहाँ परिवार के एक सदस्य कि ख़ुशी पुरे परिवार कि ख़ुशी होती है तथा कोई एक सदस्य कि परेशानी पुरे परिवार कि परेशानी होती है। घर में जो सबसे बड़े होते वही घर के मुखिया होते है उनकी बात सभी को मान्य होती है। परिवार के बच्चों के अभिभावक केवल माता-पिता ही नहीं होते है दादा-दादी और भाई-बहन भी होते है अब ऐसा मिला जुला प्यार भरा परिवार टुकडो-टुकडो में टूटने लगा है क्यों कि अब सभी घरों में सरस्वती वास (निवास) करने लगी है।
मै आज से पच्चीस साल पहले एक संयुक्त परिवार का सदस्य था परिवार के सभी सदस्य पढाई पूरी करने के बाद नौकरी में गए तथा शादी होने के बाद एक-एक कर सभी लोगों ने अपने परिवार के साथ उस घर से विदा ले ली जहा उनका बचपन और जवानी का कुछ लम्हा बिता था, क्यों कि मेरे संयुक्त परिवार में सरस्वती का वास हो गया था। आज हमारे परिवार के लोग भिन्न-भिन्न शहरों में अपनी जिंदगी जी रहे है। शायद तन्हा और अकेला ?
संयुक्त परिवार के टूटने से लोगों में संकीर्णता कुछ ज्यादा ही आ गई है, अन्दर से अकेलेपन का डर बना रहता है दूर-दूर तक अपना कोई नज़र नहीं आता है, बच्चे जब अपनी पढ़ाई पूरी करके अपने कामो में व्यस्त हो जाते है तो यह अकेलापन और खलने लगता है। यह तब तक अच्छा लगता है जब तक मै अपने कामो में व्यस्त हूँ लेकिन बुढ़ापा बहुत ही दुखदाई हो जाता है। शायद यह संयुक्त परिवार के टूटने का ही नतीजा है।

1 comment:

Anonymous said...

संयुक्त परिवार के विघटन पर अजय का आलेख हमें एक भग्न अतीत की तरफ ले जाता है. संयुक्त परिवार का ढांचा लगभग पूरी तरह चरमरा चुका है. गाँव-कस्बे और शहर, हर जगह यह टूट रहा है. मजबूत दीवारों का एक घर जो अबतक सामाजिक तथा भावनात्मक स्तर पर हमारा सुरक्षा दुर्ग था, वह ईंट-ईंट कर गिरते हुए मलबे में बदल रहा है. इस टूटन की त्रासदी हम सबके भीतर है. हमारा यह विखंडित अतीत हमारी चेतना में, और हमारी नींद में, हमेशा मौजूद है. संयुक्त परिवार के विघटन के साथ बहुत सारे शब्द संदर्भहीन हो गए - दादा-दादी, चाचा-बुआ, भैया-भाभी, बड़की माई. इन शब्दों का विलुप्त होना उन बहुत सारे खम्भों का गिरना है जो हमें थामें थे. संयुक्त परिवार का बिखरना अनेक अर्थों में हमारा बिखरना है.

- मदन केशरी