Thursday, May 20, 2010

रास्ते से भटका आन्दोलन

नक्सलवाद कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कमुनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुआ है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने १९६७ मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की थी। मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषितंत्र पर दबदबा हो गया है; और यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। १९६७ में "नक्सलवादियों" ने कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से अलग हो गये और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। १९७१ के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत सी शाखाएँ हो गयीं और आपस में प्रतिद्वंदिता भी करने लगीं। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गयी है और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती है। लेकिन बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में लगे हुए हैं। नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है। चारू मजुमदार और कानु सान्याल ने जिस उद्देश्य लिए नक्सलवाद कि लड़ाई शुरु कि थी आज वो नक्सलवाद अपने पथ से दिग्भ्रमित हो चुका है, अब तो नक्सलवादियो के दामन आदिवासियों, गरीब और अहसाय लोगों के खून से रंग चुका है । उसके मेनोफेस्टो में अब दीन-दुखी, पीडित-दलित, मारे-सताये हुए पारंपरिक रूप से शोषित समाज के प्रति न हमदर्दी की इबारत है, न ही समानता मूलक मूल्यों की स्थापना और विषमतावादी प्रवृतियों की समाप्ति के लिए लेशमात्र संकल्प शेष बचा है । वह स्वयं में शोषण का भयानकतम् और नया संस्करण बन चुका है। वह अभावग्रस्त एवं सहज, सरल लोगों के मन-शोषण नहीं बल्कि तन-शोषण का भी जंगली अंधेरा है। एक मतलब में नक्सलवाद शोषितों के खिलाफ हिंसक शोषकों का नहीं दिखाई देने वाला शोषण है। आज नक्सलवाद आतंकवाद का पर्याय बन चूका है यह अब अपनो के ही नहीं बल्कि समाज, राज्य और देश के दुश्मन बन गए हैं। ये हिंसक आदमखोर पशु बन गए हैं क्यों कि विरासत में मिली हैवानियत कि शिक्षा इनको समाज का ही दुश्मन बना दिया है। पथ से विचलित एक आन्दोलन कि समाप्ति कि गाथा है।एक अच्छे उदेश्य कि पूर्ति के लिए लिया गया संकल्प बीच रास्ते में ही दम तोड़ दी। अब नक्सलवाद आतंकवाद का अभिप्राय बन चूका है नक्सलवादी धीरे धीरे आम जनता कि सहानभूति खोते जा रहे हैं।अगर ये इसी तरह हिंसक घटनावों को अंजाम देते रहेंगे तो एक दिन इनको संवैधानिक रूप से देशद्रोही मान लिया जायेगा।

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