Friday, September 16, 2011

लालच बुरी बला है बचपन में पढ़ा था मैंने

लालच बुरी बला है  
बचपन में पढ़ा था मैंने
इस लालच बुरी बला को  
मै छोड़ दिया था पहले
था आदर्श कुछ अपना भी 
नहीं इसे अपनाएंगे
रुखी सुखी ही खायेंगे
पर मस्तक नहीं झुकायेंगे
बचपन से जब जंवा हुए 
अपने पैरों पर खड़ा हुए
बचपन कि वो सब बाते 
मै भूल गया था अबतक
अब याद नहीं आदर्श कि बाते 
याद नहीं है वो बचपन
कंधो पर जब बोझ पड़ा तो
भूल गया आदर्श कि बाते
अब याद नहीं आदर्श कि बाते
चाह है आगे बढ़ने कि
जो मिल जाता वो छोटा है
जो नहीं मिला वह पाना है
मै मृगतृष्णा में भटक गया
और लालच में फंसता ही गया
इस लालच का कोई अंत नहीं है
यह तो बढ़ता जाता है
इस लालच में है गँवा दिए
अपना जमीन अपना ज़मीर
अब गया वो बचपन गई जवानी
बुढ़ापे संग डोल रहा
पाया क्या है समझ न में आता
जो खोया है वह सोंच रहा
मै खो दिया है जीवन अपना
हाथ लगा ना कोई सपना

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