Saturday, May 29, 2010
मिदनापुर ट्रेन हादसा
मिदनापुर ट्रेन हादसा में ७२ लोगों की जाने गयी तथा २०० से ज्यादा लोग जिंदगी और मौत से जूझ रहे है जो की मौत से भी बत्तर जिंदगी होती है। यह सरकारी आंकड़ा है वास्तविकता से कोसो दूर। क्या मानवता का यही हस्र होना है, लोग अपने गंतव्य जगह पहुँचने से पहले ही मौत के शिकार हो गए । मानवता के दुश्मन ट्रेन को बम से उड़ा दिए और जिन्दगी मौत में तब्दील हो गई, चारो तरफ हाहाकार मच गया, लोग चीखने चिल्लाने लगे, जिंदगी बचाने के लिए संघर्ष करने लगे, चारो तरफ अफरा-तफरी मच गई तत्काल मदद के लिए कोई नहीं आस-पास, और जिंदगी मौत में तब्दील होती गयी। यह लापरवाही सरकार की है , जब सरकार ने नक्सलियों का सफाया के लिए ग्रीन हंट आपरेशन शुरू किया था तो बदले में नक्सली बड़ी घटना को अंजाम देगे, क्या सरकार को यह मालूम नहीं था? ये मुट्ठी भर राजनेता क्या भारतीय नागरिक को भेड़-बकरी समझ लिए हैं? जब ये राजनेता संसद में बैठकर इस तरह का आपरेशन शुरू करने के खाका तैयार करते है तो फिर आम लोगों के सुरक्षा का उपाय क्यों नहीं सोंचते, जब हादसा हो जाता है तो सरकार बदले में मरने वाले व्यक्ति के परिवार को कुछ लाख रुपये तथा घायलों को कुछ हज़ार रुपये दे देती है और अपनी जिम्मेवारी से मुक्त हो जती है। क्या सरकार ने कभी यह सोंचने की कोशिश की है जो घायल हो गए है उनमे से कितने लोग अपाहिज हो जाते है और कितने लोग उस हादसे को बर्दास्त नहीं कर पाते है और विछिप्त हो जाते हैं जिनके लिए जिंदगी मौत से भी बदतर हो जाती है क्या सरकार ने इस पर कभी ध्यान दिया है, शायद नहीं ! अगर सरकार लोगों के बचाव के बारे में सोचती तो शायद ऐसी घटनाये नहीं होती।
और ये नक्सलवादी, ये क्या चाहते है, क्यों ये खुनी खेल खेल रहे हैं ? आतंक का माहौल कायम कर दिए है, क्या ये मानवता से कोशो दूर चले गए हैं , क्या इनके दिल में आम लोगों के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं रह गई है ?
अगर आम लोगों के प्रति हमदर्दी होती तो ये खुनी-खेल नहीं खेलते। क्यों कि नक्सलवादी भी इसी देश के है और इनके द्वारा मारी गई बेकसूर जनता भी इसी देस कि है। फिर ये किनसे बदला ले रहे है अपने ही लोगों से?
हमारे देश कि आज़ादी अहिंसा से मिली है तो फिर इस अहिंसावादी देश में हिंसा क्यों ?
Friday, May 28, 2010
Thursday, May 27, 2010
Friday, May 21, 2010
Thursday, May 20, 2010
रास्ते से भटका आन्दोलन
Wednesday, May 19, 2010
नक्सलवादी
Tuesday, May 18, 2010
Monday, May 17, 2010
डुमराँव के सबसे नामी घड़ीसाज थे भोंपू मियाँ
कहते हैं ऐसी कोई घडी नहीं जिसे भोंपू मियाँ दुरुस्त नहीं कर सकते थे
ख़राब से ख़राब घडी जो कभी न चली बरसों से
जिसके कल-पुर्जे सुई-कांटे जाम हो गए धुल-पानी-पसीने से
अचानक टिक-टिक करने लगती उनकी उंगलिओं के इशारे से
आई-ग्लास के पीछे से तजवीजती उनकी बूढी आँख
पकड़ लेती बारीक़ से बारीक़ नुक्स
बताते है महाराजा कमल सिंह सोने कि ओमेगा जब बंद हो गई एक बार
और लंदन के घडीसाजों ने कहा
कि इसे कम्पनी में भेजना पड़ेगा नयी मशीन के लिए
भोंपू मियाँ का खांटी देसी मंतर कर गया काम
पिता जी कि शादी में मिली रोमर इसी तरह चलती रही सालों-साल
दीवारों पर लटकती तरह-तरह कि घड़ियों के बीच बैठे
भोंपू मियाँ अक्सर गम होते किसी पेचीदा मशीन के निभिचत मरम्मत में
चाभी की सुराख़ में पतले नुकीले ड्रापर से तेल डालते
महीन पुर्जों को चिमटी से पकड़ कर एक के ऊपर एक
थरथराती उँगलियों से घडी के केस में बैठाते हुए
जैसे कि एक समय को ठीक-ठाक कर दुरुस्त करना चाहते हों
गुजरते वक़्त से उन्हें बहुत शिकायतें थी
कहते राजनीती सिर्फ झंडे बजी के अलावा कुछ नहीं रही
चाहे सोसलिस्ट, कमुनिस्ट या कांग्रेसी, सब देश के लिए दीमक
आज़ादी से सबसे बड़ा बदलाव यह आया
कि खद्दर कि टोपियाँ बड़ी संख्या में बिकने लगी
उनकी आदत बन चुकी ज़रूरतों में शामिल था रोज़ का अखबार
मगर पढ़ते-पढ़ते वे अचानक पन्ने मोड़कर एक तरफ रख देते
-"सारे अख़बार राग दरबारी अलापते हैं " एक चुप्पी के बाद बोलते
केवल 'ब्लिट्ज' एक ऐसा अख़बार था जिसकी प्रतीक्षा रहती उन्हें हर सप्ताह
रेडिओ से जब आती नूरज़हाँ या शमशाद बेगम कि लहराती आवाज़
अपनी गूँज में अतीत कि चम्पई स्मृतियाँ लिए
भोपूं मियाँ अख़बार पढ़ते एकाएक ठहर जाते
चश्मा उतार आवाज़ों को उनके चहरे से पहचानते हुए
-" लता क्या गाएगी ! नूरज़हाँ कि आवाज़ में जो कशिश, जो खनक थी
वह इस दौर की किसी गायिका में कहाँ !"
मुँह में पान का बीड़ा दबाते कहते थे भोपूं मियाँ
वे गर्मियों की शामें थी, पानी छिड़के सड़क की सोंघी खुसबू से भरी हुई
भोपूं मियाँ ने सुनानी शुरू की थी एक लम्बी कहानी
जिसके आरम्भ का सूत्र मुझसे छुट गया
डेढ़-दो घंटे हर रोज़ सुनते रहे किस्तों में वह कहानी
धिक् समय पर आ जाते आस-पास के रहने वाले चार-पांच लोग
बाबुजी मित्र बगल के दुकानदार
सिरीकिसुन सरमा, नारायण पेंटर, काशी गढ़ेदा कभी गौरी कम्पाउनडर
इसराइल होटलवाले अपने चबूतरे पर खड़े-खड़े कान लगाकर सुनते रहते
उत्सुक सांसो के चुप्पी के बीच गूंजती भोपूं मियाँ की भारी आवाज़
समुन्द्र में लंगर डालते अनाम देशों के पोत
अथाह नीलेपन चमकते उनके मस्तूल
रोशनी में तिरती उत्सव के कोलाहल की अनुगूँज
अंधकार में कौधती तलवारों की लपलपाती चमक
धुंधलके में लिपटी रात बनाती एक पुल देखे और अदेखे के बीच
असर कुछ ऐसा हुआ कि दिन फीके लगाने लगे
रातें रहस्य की छुअन से भारी हुई
सिरीकुसून सरमा जल्दी अपना टाल बंदकर शटर खींचे देते
सत्तार बिड़ीवाले की धुन्धुवाती ढिबरी बुझ जती कुछ जल्द
पंडीजी अब नौ बजे की जगह एक घंटे पहले निपट जाते भोजन कर
बाबूजी दुकान में घुप्पअँधेरा कर देते
अगर कोई भुला-भटका ग्राहक आ गया तो 'कल आना बोल देते लौटा
और मेरा मन पढाई- लिखाई से एकदम उचाट गया
दिन भर सिर में वही सारी बाते उमड़ती-घुमड़ती जो रात में सुनता
कोई मंतर था जिसमे बांध गए थे सारे लोग और जिसका कोई काट नहीं
-"कहाँ पढ़ी इतनी लम्बी कहानी, किस किताब में?"
एक दिन पूछ ली मैंने भोपूं मियाँ से मन के कोने में बैठी बात
'द काउंट ऑफ़ मांटे क्रिस्टो- यही नाम बताया था उन्होंने
फिर उस बुजुर्ग घड़ीसाज की जिंदगी एक बंद सुरंग की तरह खुलने लगी
कुछ हिचकिचाहट के बाद हट गए काठ किवाड़ों पर जंग लगे सांकल
अँधेरे को टटोलता मै निचे उतरता गया सुरंग में
नकली सिक्के ढालने के अपराध में लम्बी सजा हो गई थी भोपूं मियाँ को
बक्सर सेंट्रल जेल की अँधेरी कोठरी में बीत रहे थे दिन
महीनों न किसी की खोज खबर, न चिड़िया न चिड़िया का पुत
केवल सेल के बाहर फर्श को रौंदते जूतों की चरमर
एक दिन साथ के सेल में एक कैदी आया
निस्तब्ध दीवारों में भर गयी बेड़ियों की झन-झन
पता चला कोई आन्दोलनकारी था, बरसों की सजा में जकड़ा
उस कैदी और भोपूं मियाँ के सेल के बीच
ऊपर दिवार में एक रोशनदान था
हाल-चाल पता-पतियान पूछते दोनों जान गए एक दुसरे को
आन्दोलनकारी एक उपन्यास के कुछ पन्ने रोज पढता और सुनाता भोपूं मियाँ को
अंग्रेजी में पढता और तजुर्मा करता हिंदी में
भोपूं मियाँ ने कभी न देखी 'द काउंट ऑफ़ मांटे क्रिस्टो' किताब
न उस आन्दोलनकारी का चेहरा
मगर हर शब्द उन्हें याद रहा, एक-एक अर्थ और पूर्ण-विराम
जिनके बीच में थी उस युवा आन्दोलनकारी की सांसे
भोंपू मियाँ और आन्दोलनकारी दोनों की नसों में भर रही थी
मुक्ति की आदिम इक्छा
दोनों ने मिलकर सोंचा इस काल-कोठरी से कैसे निकलें बाहर
कैसे दरकाएँ यह अंधकार की दिवार, कैसे लगाएँ उम्रकैद की सजा में सेंध
उपन्यास के पक्तियों के बीच में छुपा था उनकी मुक्ति का भेद
फिर भोपूं मियाँ ने शुरु की सिपाहियों-थानेदार की घड़ियों की मरम्मत
सिपाही जन अपने घर-मुहल्ले रिश्ते-नातों की घड़ियाँ ला-ला बनवाने लगे
बंद पड़ी कलाई घड़ियाँ, जाकड़ में पड़े टेबुलवाच
दादा-परदादा के विरासती घड़ियाल
जिनके काँटों के बीच फंसा होता एक जाला लगा समय
भोपूं मियाँ हर सप्ताह तीन-चार घड़ियाँ ठीक करने लगे
मगर होता यह कि वह रख लेते चटके हुए शीशे अपने पास
अगर शीशा चटका न भी हो तो कह देते कि केस से निकलते वक़्त टूट गया
या खिड़की से पकड़ते घडी हाथ से छुट गई, कांच दो टूक हो गया
किसी ने इस छोटी बात की तरफ आंखिर नहीं दिया
आंखिर रुकी घडी ठीक तो हो गई
साथ ही यह भी हुआ कि जब कोई संगी-साथी या हित-मित मिलने आता
दोनों कैदी किसी बहाने उनसे मंगवाते कभी तागे कि लच्छी कभी गोंद
पीसना शुरु किया शीशा को रातों में जग-जग कर, जूतों के कड़बच से चुपके
तागो पर चढ़ाया बारीक़ शीशे का माँझा
बनाया तांत-सा चमारचीट और इतना तेज कि रगड़ते कट जाय उंगली
जब गोंद पड़ गया कम तो जेल के भात का मांड आया काम
और फिर एक रात जब पहर करवट बदल रहे थे
शुरु किया खिड़की के लोहे की छड़ों पर तागों को रगड़ना
महीनों बीते, टूटते गए तागे एक-एक कर
एक दिन तागे से कटकर टूटी लोहे की छड
भोपूं मियाँ बताते थे वह अमावस कि रात थी और गंगा में उफान था
अँधेरे में वो भागते रहे बेतहासा, बन्दूक की गोलियों को छकाते
तैरते पार किया पानी का विस्तार
और दूसरे पाट पहुँच हवा में कपूर कि तरह गम हो गए
उस दिन पहली बार भोपूं मियाँ ने देखा था उस आन्दोलनकारी का चेहरा
अँधेरे में लिपटी एक शक्ल और दो आँखे जिनमे उम्मीद का चमकीला रंग था
जब भी मै किसी बताता हूँ तागे से लोहा काटने की यह घटना
दुःख कि बात है कि कोई इस पार विश्वास नहीं करता
***
अलेक्जेंडर ड्यूमा की प्रसिद्ध कथाकृति 'द काउंट ऑफ़ मांटे क्रिस्टो ' दो ऐसे बंदियों के कारावास से मुक्ति का प्रसंग बुनती है जो चीनी-मिटटी की प्लेट के टुकड़ों से घिसते तथा जग और साँसपैन के टूटे हत्थों से इंटों को खिसकाते, पचास फिट दिवार भेदते है ।
Saturday, May 15, 2010
महानगर का आकर लेता पटना
Friday, May 14, 2010
विश्वास
जीवन में कुछ घटाए ऐसी घटती है जो आपके दिलो दिमाग पर एक अमित छाप छोड़ जाती ही जिसे आप चाह कर भी भुला नहीं पाते है और वह बराबर आपके नज़रो के सामने चलचित्र की तरह चलती रहती है। मेरे बचपन में भी कुछ घटनाये घटित हुई है जो मेरे जेहन में बस गई है, जब भी मै अपने अतीत में झांकता हूँ तो वह घटनाये एक चलचित्र की तरह मेरे नज़र के सामने से गुजरने लगाती है और मै उस निरंकार ब्रम्ह के प्रति यह सोंचने पर विवश हो जाता हूँ की उसने इन्सान को कितनी शक्ति दी है जो कुछ ऐसी बात कह जाता है जो समय आने पर सत्य हो जाता है। मेरी पहली घटना मेरी माँ से जुडा है, यह बात उन दिनों की है जब मेरी उम्र महज़ ६ वर्ष की थी, उन दिनों हमलोग एक संयुक्त परिवार में रहते थे मेरे दादा, दादी, पिता जी, माँ, तीन चाचा, एक चची दो फुआ मेरे बड़े भाई मै और मेरी छोटी बहन यह हमारा परिवार था। मेरी छोटी बहन उस समय डेढ़ या दो साल की होगी, उसे माता माई (Small Pox) निकल गया था, उस समय में उपचार के नाम पर लोग घर के दरवाजे पर नीम की पत्ती टांग देते थे और जिसको माता माई निकलती थी उसके बिछावन के निचे नीम की पत्ती रख दिया जाता था, घर को पानी से धोकर साफ़ रखा जाता था यानी घर के वातावरण को पूरी तरह से सात्विक रखा जाता था संध्या में अगल बगल की महिलाएं आकर माता माई का गीत गाती थी, खाने में जो परहेज होता था उसमे दाल में हल्दी नहीं पड़ता था एवं तावे की रोटी नहीं बनती थी साथ ही लहसुन प्याज़ वर्जित था। संध्या में जब औरते माता माई का गीत गाती थी तो मै भी वही बैठ जाता था, एक दिन औरते संध्या में गीत गा रही थी और दिनों की तरह मै भी वहा बैठा था अचानक मेरी माँ रोने लगी और कहने लगी मेरी बच्ची का आँख बह गया, मेरी बच्ची का आँख बह गया, रोते रोते अचानक चुप हो गई और दिवार की तरफ मुंह कर के कहने लगी "माता मैया अगर आप मेरी बच्ची की आंख दे सकती है तो इसको जिन्दा रखे, क्यों कि यह लड़की जाती है, अगर आप इसका आंख नहीं दे सकती है तो इसको उढ़ा लीजिये, लगा माँ दिवार कि तरफ मुह करके किसी से बाते कर रही हो, जो औरते गीत गा रही थी उन लोगो ने माँ को समझाने कि कोशिश कि लेकिन माँ कि आँखों में ममता कि विवशता देख सभी औरते चुप हो गई और अपने अपने घर को चली गई, हम लोग भी खाना खाने के बाद सो गए। सुबह सुबह मेरी माँ रोने लगी और कहने लगी मेरी बच्ची को माता माई उढ़ा ले गई यानी कि मेरी छोटी बहन अब इस दुनिया में नहीं रही।
मेरी दूसरी घटना तब घटी जब मै आठ साल का था, मेरी माँ को पीलिया रोग हो गया था छोटे जगहों में लोग दवा पर कम दुआ और झड फूंक पर ज्यादा विश्वाश करते, मेरी माँ का रोग जब बहुत बढ़ गया तो पिता जी माँ को लेकर पटना गए साथ में मेरी दादी और चाचा भी गए। मेरी माँ का इलाज हुआ लेकिन वो बच नहीं पायी, यह घटना उसी वक़्त कि है मै मेरे बड़े भाई और फुआ साथ में मुन्नी जो हमारे यहाँ काम करते थे वो हम सभी चारो आदमी, गर्मी के मौसम में रात को छत पर सोये थे अचानक मेरे बड़े दादा बिश्वनाथ केशरी अपने छत से रात तक़रीबन दस बजे जोर जोर से बोलने लगे एय मदन एय मदन देखो ऊपर देखो तुम्हारी माँ जा रही है, उस वक़्त हमलोग बहुत छोटे थे कुछ समझ नहीं पाए कि दादा क्या बोल रहे है, हम लोग रोने लगे तो फुआ और मुन्नी हमलोगों को चुप कराये, दुसरे दिन भैया स्कूल जा रहे थे मै भी स्कूल जा रहा था रास्ते में देखा दादी पिता जी सभी लोग रिक्शा से आ रहे है, खुशी हुई चलो माँ आ गयी, जब घर में गया तो सभी लोग रो रहे थे तब मालूम हुआ कि मेरी माँ अब इस दुनिया में नहीं है। इन दो घटनावो पर ध्यान देता हूँ तो मुझे उस निरंकार ब्रम्ह कि शक्ति पर अटूट विश्वास होता है कि वो हर समय हर घडी हमारे साथ रहता है और समय आने पर वह हमारे ही जुबान से शब्दों का इस्तमाल करता है।