Friday, August 27, 2010

टूटते दरख़्त

संयुक्त परिवार अब बीते ज़माने कि बात लगने लगी है। आज का पढ़ा-लिखा इंसान संकीर्ण विचार का हो गया है। उसकी सोंच इतनी छोटी हो गई है कि, उसने जीने का दायरा भी छोटा कर लिया है। अब परिवार का मतलब होता है पति-पत्नी और उनके द्वारा उत्पन्न बच्चे। ऐसे छोटे परिवार बड़े शहरों में बहुत तायदाद में मिलेंगे, क्यों कि बड़े शहरों में पढ़े-लिखे लोगों कि संख्या ज्यादा है। पढने के बाद लोगों के विचार बड़े होते है सोंच बड़ी होती है उनके दायरे बड़े होते है लेकिन परिवार के नाम पर उनकी सोंच छोटी हो जाती है। उनके दायरे सिमट कर इतनी छोटी हो जाती है कि पत्नी और बच्चे तक ही सिमित रह जाती है। अब बड़े शहरों में संयुक्त परिवार न के बराबर ही देखने को मिलेगा, लेकिन अभी भी गाँव और कश्बो में संयुक्त परिवार ही ज्यादातर मिलेगा, क्यों कि गाँव और कश्बो में पढ़े-लिखे लोगों कि संख्या कम है। उनका जीने का दायरा बहुत बड़ा है, उनके विचार बहुत बड़े है वो दिल से बहुत ही अमीर है। वो एक बड़े परिवार के लिए लिए जीते है उस परिवार में दादा-दादी, माता-पिता, भैया-भाभी, भाई-बहन, फुआ, छोटे भाई कि पत्नी और छोटे-छोटे हम सभी के बच्चे। सभी का आपस में प्यार, मिल-जुल कर रहना, जहाँ परिवार के एक सदस्य कि ख़ुशी पुरे परिवार कि ख़ुशी होती है तथा कोई एक सदस्य कि परेशानी पुरे परिवार कि परेशानी होती है। घर में जो सबसे बड़े होते वही घर के मुखिया होते है उनकी बात सभी को मान्य होती है। परिवार के बच्चों के अभिभावक केवल माता-पिता ही नहीं होते है दादा-दादी और भाई-बहन भी होते है अब ऐसा मिला जुला प्यार भरा परिवार टुकडो-टुकडो में टूटने लगा है क्यों कि अब सभी घरों में सरस्वती वास (निवास) करने लगी है।
मै आज से पच्चीस साल पहले एक संयुक्त परिवार का सदस्य था परिवार के सभी सदस्य पढाई पूरी करने के बाद नौकरी में गए तथा शादी होने के बाद एक-एक कर सभी लोगों ने अपने परिवार के साथ उस घर से विदा ले ली जहा उनका बचपन और जवानी का कुछ लम्हा बिता था, क्यों कि मेरे संयुक्त परिवार में सरस्वती का वास हो गया था। आज हमारे परिवार के लोग भिन्न-भिन्न शहरों में अपनी जिंदगी जी रहे है। शायद तन्हा और अकेला ?
संयुक्त परिवार के टूटने से लोगों में संकीर्णता कुछ ज्यादा ही आ गई है, अन्दर से अकेलेपन का डर बना रहता है दूर-दूर तक अपना कोई नज़र नहीं आता है, बच्चे जब अपनी पढ़ाई पूरी करके अपने कामो में व्यस्त हो जाते है तो यह अकेलापन और खलने लगता है। यह तब तक अच्छा लगता है जब तक मै अपने कामो में व्यस्त हूँ लेकिन बुढ़ापा बहुत ही दुखदाई हो जाता है। शायद यह संयुक्त परिवार के टूटने का ही नतीजा है।

Tuesday, August 24, 2010

भारतीय संस्कृति पर बढ़ा खतरा

भारत वर्ष पर अंग्रेजों का हुकुमत तक़रीबन दो सौ सालों तक रहा है १५ अगस्त १९४७ को वह भारत छोड़ कर अपने मुल्क को वापस चले गए , लेकिन जाने से पहले उन्होंने इस धरती पर कुछ बीज़ रोप कर गए थे। अब वो बीज़ अंकुरित होकर विशाल पेड़ का रूप धारण कर लिया है, उस पेड़ कि शाखाएं इतनी बढ़ी इतनी बढ़ी कि आज पुरे मुल्क में फ़ैल चुकी है। आज कुकुरमुत्ते कि तरह पुरे भारत में इंग्लिश मीडियम कि स्कूलें खुली हुई है या खुल रही है। अब माध्यमिक विद्यालयों में बच्चा वर्ग पहला वर्ग या दूसरा वर्ग नहीं होता है बल्कि प्रेप, नर्सरी, के जी और के जी- 1 से क्लास शुरू होता है। अब छोटे बच्चे " " नहीं पढ़ते है वो "A B C D" से अपनी पढाई शुरू करते है। माँ बाप भी अपने बच्चों को इंग्लिस मीडियम स्कूलों में दाखिला दिलाकर गौर्वान्तित महशुस करते है। इंग्लिस मीडियम कि स्कूलें पहले महानगरों में हुआ करती थी धीरे-धीरे बड़े शहरों से होते हुए छोटे शहरों तक बढ़ी अब हालत यह है कि यह गावं और छोटे कस्बे तक फ़ैल गई है। इसके फैलाव का ही कारण है कि आज हिंदी माध्यम कि स्कूलें नहीं खुल रही है और जो पहले से थी वो बंद हो गई है या बंद होने के कगार पर है। अब हिंदी माध्यम के स्कूलों में बच्चे पढने के लिए नहीं जाते है क्यों कि माता-पिता अपने बच्चे को हिंदी पढ़ाने में तौहीनी समझते है
" यह कितनी बड़ी बिडम्बना है हिंदुस्तान कि अपनी भाषा हिंदी है और हम हिन्दुस्तानी ही अपनी हिंदी भाषा के दुश्मन बन बैठे है " इसे जाहिल और गवारों कि भाषा मान बैठे है हम अपने बच्चों को किस रास्ते पर डाल रहे है अगर हमारी रफ़्तार यही रही तो आने वाली पीढियां हिंदी जानेगी ही नहीं आज से पच्चीस तीस साल पहले ज्यादातर हिंदी माध्यम कि स्कूलें हुआ करती थी जिसमे छठा वर्ग से अंग्रेजी कि पढाई शुरू होती थी पूरी पढाई हिंदी में होती थी केवल एक पेपर अंग्रेजी का होता था आठवी वर्ग से अंग्रेजी दो पेपर हो जाता था लेकिन अब स्कूलों में पूरी पढाई अंग्रेजी में होती है सिर्फ एक पेपर हिंदी का होता है वह भी एक्झिक विषय का मतलब यह कि अगर बच्चा चाहे तो हिंदी रख सकता और नहीं तो उसके जगह पर कोई और विषय रख सकता है पहले संस्कृत एक्झिक विषय होता था
उस अंग्रेजी के एक पेपर ने आज ऐसा पांव पसारा कि अंग्रेजी मुख्य हो गया और हिंदी एक्झिक
हमलोग जब विद्यालय में पढ़ते थे तो उन दिनों कोई सहपाठी अंग्रेजी में कोई आवेदन लिखता था तो हम विद्यार्थी उस लड़के को बहुत महत्त्व देते थे, शायद उस वक्त यह समझ में नहीं आता था कि यही अंग्रेजी भाषा सर्वोपरि हो जाएगी, क्यों कि हमलोगों कि मातृभाषा हिंदी थी, बोल-चाल कि भाषा हिंदी थी पढाई पूरी तरह हिंदी में करते थे हाँ एक विषय अंग्रेजी का होता था अब समझ में आने लगा कि इस भाषा में आकर्षण है, रोब है तभी तो हम अभिभावक अपने बच्चे को अंग्रेजी पढ़ाने पर तुले हुए है जो मेरे अन्दर जो कमियां रह गई थी वह बच्चों के मध्यम से पूरी होते देख रहे है आज हम अपनी भावी पीढ़ियों को अंग्रेज बनते देख रहे है आज उनकी शिच्छा, रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल अंग्रेजो कि तरह होते देख रहे है आज हम इतने खुले विचार धारा के हो गए है अब लड़का या लड़की में फर्क नहीं करते है अब लड़कियां भी लड़के के कपडे पहन कर कदम से कदम मिला कर चलने लगी है अब लड़के का ही चार पांच गर्ल फ्रेंड नहीं होती है बल्कि लड़कियों का भी चार पांच बॉय फ्रेंड होते है अब लड़कों के साथ-साथ लड़कियां भी नशा पान करने लगी है, स्वछन्द जिन्दगी जीने लगी है अब हमारी वर्तमान पीढियां पूरी तरह अंग्रेज हो गई है जो मैंने अपने बच्चों में बुनियाद डाली थी आज वह पूरी तरह साकार हो गया है
अब इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे है आज के बच्चे अपने बूढ़े हो चले माता-पिता को साथ रखना नहीं चाहते है क्यों कि उनके पास समय नहीं है आज यही कारण है कि महानगरों एवं बड़े शहरों में "ओल्ड एज होम" नाम से बहुत सी संस्थाएं चलती है, अभी यह संस्थाएं महानगरों एवं बड़े शहरों तक ही सीमित है लेकिन अगले बीस सालों में यह छोटे शहर एवं गाँव तक खुल जाएगी यह दूसरी सभ्यता के नक़ल का ही परिणाम है कि आज हमारी भावी पीढियां एक ऐसे कगार पर खडी है जो पूरी तरह अंग्रेज ही है ही पूरी तरह भारतीय हम अभिभावक ही दोषी है इस दुष्परिणाम के हमारी भावी पीढियां नहीं है बच्चा तो बच्चा होता है उसे जो चाहते है हम बनाते है हम अभिभावक अन्दर से इतने कुंठित तथा हीनभावना से ग्रसित है कि अपने ही बच्चे को एक ऐसे मुकाम पर खड़ा कर दिए है जहाँ अपनी पहचान ही खो दिया है
मै अंग्रेजी के विरोध में नहीं हूँ अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है इस भाषा कि जानकारी जरुरी है इसके वगैर विदेशो में काम नहीं चल सकता है उच्च शिच्छा में भी इस भाषा ज्ञान होना जरुरी है मै अंग्रेजी सभ्यता का विरोध करता हूँ अंग्रेजी सभ्यता अगर भारत में पनपने लगी तो हमारी सभ्यता खतरे में पड़ जाएगी

Saturday, August 21, 2010

"विकास" ही मुख्य मुद्दा होगा बिहार विधान सभा चुनाव में


बिहार में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस और जनता दल (युनाइटेड) के बीच विकास कार्यो का श्रेय लेने की होड़ शुरू हो गई है। सोनिया गांधी ने बिहार दौरे में कहा कि केंद्र द्वारा अब तक सबसे अधिक वित्तीय सहायता दिए जाने के बयान पर राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पलटवार करते हुए कहा कि बिहार को हक से ज्यादा वित्तीय मदद नहीं मिली।

यह खबर दैनिक हिंदुस्तान के पटना संस्करण में दिनांक २०/०८/२०१० को प्रकाशित हुआ है, यानी कि केंद्र भी इस बात से सहमत है कि बिहार में विकास हुआ है। यह विकास आज़ादी के बाद से केंद्र में और राज्य में कांग्रेस कि सरकार रहते हुए क्यों नहीं हो पाया था ? या फिर कांग्रेस द्वारा समर्थित राष्टीय जनता पार्टी पंद्रह साल तक बिहार कि सत्ता में रही तब विकास क्यों नहीं हुआ ? जो आज बिहार के विकास को लेकर तरह तरह कि बयानबाजी हो रही है और सभी पार्टियाँ इसका श्रेय लेने पर तुली हुई है।

बिहार के लिए यह एक अच्छा संकेत है। अगला बिहार विधान सभा चुनाव में सभी पार्टियों का "विकास" ही मुख्य मुद्दा रहेगा। भले वो सत्ता में आने पर विकास करे या ना करे ?
सही बात तो यह है कि बिहार में विकास का श्रेय किसी भी पार्टी को नहीं जाता है बल्कि जिसके शासन काल में यह विकास कार्य हुआ है सिर्फ उसी को इसका श्रेय जाना चाहिए ? केंद्र से सभी के शासनकाल में वितीय सहायता मिली थी लेकिन विकास कार्य नहीं होने के कारण हर बार फंड लौट जाता था। फिर कांग्रेस बिहार के विकास पर अपनी दावेदारी क्यों थोपना चाहती है ? विकास केवल पैसा देने से हो जाता तो आज कोई भी राज्य पिछड़ा नहीं होता ? पिछड़ा होने का एक ही कारण है वर्तमान सरकार में कार्य करने कि इक्छाशक्ति का न होना। पिछली जो भी सरकारें बिहार में शासन कि उनमे विकास को लेकर कोई इक्छाशक्ति नहीं थी। वर्तमान में जो सरकार बिहार में शासन कर रही है उसमे विकास को लेकर इक्छाशक्ति है, और उसने पांच वर्षो में जो कार्य किया है वह दिखाई देता है। अगर दिखाई नहीं देता तो सोनिया गाँधी का बिहार के विकास को लेकर बयान नहीं आता। यह अच्छी बात है कि वर्तमान सरकार के पास बिहार के विकास को लेकर एक सपना है जिस पर वह अमल भी कर रहा है, जहाँ सपने साकार होते है परिणाम वही नज़र आता है। हमारे बिहार के माननीय राजनेताओं और सांसदों (विपझ) को बिहार में विकास नज़र नहीं आ रहा है ? उनको नज़र आ रहा है वर्तमान सरकार द्वारा सरकारी खजाने कि लूट। भारत में ऐसा कौन राजनेता है जो सत्ता में रहने पर जनता के पैसे को नहीं लूटा है ? सभी ने लूटा है अंतर यह पड़ता है कि एक काम कर के पैसे लूटता है और एक बिना काम किये ही जनता का पैसा लूट लेता है। (डाक्टर राम मनोहर लोहिया या कर्पूरी ठाकुर जैसे राजनेता नहीं है) इससे जनता के सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है ? फर्क पड़ता है तब जब जनता उसके शासनकाल में परेशान होती है, उसके जान-माल कि छति होती है, उसके अधिकारों का हनन होता है।
आज़ादी के बाद से त्रस्त बिहार अपनी पहचान खो दिया था अब धीरे-धीरे अपनी गरिमा वापस पा रहा है।

Thursday, August 19, 2010

ब्रम्ह है, ब्रम्ह नहीं है ?


इन्सान के मन-मस्तिष्क, दिलो-दिमाग पर अपनी सत्ता कायम करने वाले अनदेखे अनजाने उस ब्रम्ह कि मै बात कर रहा हूँ , जो है भी और नहीं भी है?
ब्रम्ह नहीं है :- क्यों कि मैंने उसे देखा नहीं है, उसका आकर क्या है, प्रकार क्या है, दिखता कैसा है, रंग क्या है ? आज के पढ़े-लिखे इन्सान यकीन तब ही करता है जब उसे देखता है, छुकर उसे महसूस करता है बिना जाने समझे वह किसी भी मनगढ़ंत बातों पर यकीन नहीं करता। वह प्रयोगवादी है और प्रयोग कर सत्य जानने कि कोशिश करता है। इसी सत्य कि खोज़ में आज का मानव आकाश, पाताल और धरती पर अपनी खोज़ जारी रखी है। इस सत्य कि खोज़ का अंत कहाँ है यह भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है और इन्सान भविष्य नहीं जान सकता ? जब से इस पृथ्वी पर इंसान कि उत्पत्ति हुई है उसी समय से वह सत्य कि खोज में लगा हुआ है, वह सत्य कि जब एक तार को छेड़ता है तो अनगिनत तरंगे प्रतिध्वनित होती है। अब इन्सान उन अनगिनत तरंगो कि खोज़ शुरू करता है जब उसको सुलझाने के करीब पहुंचता है तो फिर कोई और तरंगे प्रतिध्वनित होती है और खोज़ दर खोज़ यह सिलसिला चलता ही रहता है, चलता ही रहता है ....... यानि वृत्त के छोर को खोजना। यह कब तक चलेगा, इसका अंत कहाँ है। इसका जवाब किसी के पास नहीं है ? यह एक अंतहीन सिलसिला है।

ब्रम्ह है :- मैंने उसे नहीं देखा है, लेकिन हर पल उसकी उपस्थिति का एहसाश होता है। शायद वह निराकार है, स्याह अँधेरी काली रात कि तरह जिसमे अपनी आँखों के प्रतिविम्ब भ्रम होता है, जिसमे कुछ भी दिखाई नहीं देता है सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। उसकी विशाल सत्ता में नील गगन, नछत्र, तारे, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल है। मानव शारीर का निर्माण भी पांच तत्वों से हुआ है :- अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश। उसकी सत्ता में जीवन है मृत्यु नहीं है क्यों कि आत्मा अजर-अमर है, इसे कोई भी शक्ति मिटा नहीं सकती है, विनाश होता है तो केवल शारीर का, और यह शारीर फिर उन्ही पांच तत्वों में विलीन हो जाता है। यह अंतहीन सिलसिला चलता ही रहता है। उसके साम्राज्य में जीवन कहाँ-कहाँ है आज का विज्ञानं या मानव उसे नहीं ढूढ़ पाया है। हमारे भारतीय पूर्वजों या ऋषि मुनियों ने पौराणिक पुस्तकों में बहुत से लोक का जिक्र किया है जैसे:- शिवलोक, ब्रम्ह्लोक, विष्णुलोक, इन्द्रलोक, मृत्युलोक और न जाने कौन-कौन से लोक है इस ब्रह्मांड में जहाँ जीवन है। विज्ञानं इस खोज में लगा है, हो सकता है कल दूसरी दुनियां खोज ली जाय, जैसे कि रामसेतु का होना या द्वारिकापुरी का होना पौराणिक पुस्तकों में ही था जब नासा के वैज्ञनिको ने रामसेतु का फोटो और द्वारिकापुरी कि खोज पूरी दुनियां के सामने लाया तब लोगों ने यकीन किया। वैसे ही जब कोई दूसरी दुनियां ख़ोज ली जाएगी तब लोग यकीन करेंगे, जब कि हमारे भारतीय ऋषि-मुनियों ने हजारो साल पहले ही दूसरी दुनियां खोज ली थी। पौराणिक पुस्तक में ही सात सूर्य का जिक्र किया गया है जब कि एक ही सूर्य को विज्ञानं आज तक जान पाया है। क्या पता जिस ब्रम्हांड को हम देखते है जिसमे सूर्य, चंद्रमा, तारे, पृथ्वी, नछत्र है इससे परे कोई और ब्रम्हांड हो या अनेको ब्रम्हांड हो जिसकी हम कल्पना भी नहीं करते है ? क्यों कि नील गगन का न प्रारम्भ है ना ही अंत है तो हम फिर कैसे यह मान ले कि इस नील गगन में यही एक ब्रम्हांड है ? हमारा खगोल विज्ञानं अपने ही ब्रम्हांड के रहस्य को नहीं जन पाया है तो फिर वह दुसरे ब्रम्हांड कि कल्पना कैसे कर सकता है , लेकिन यह सत्य है कि इस नील गगन में और भी ब्रम्हांड है जहाँ हमारे ही ब्रम्हांड कि तरह सब-कुछ है लेकिन हमारे विज्ञानं के पास वैसे साधन नहीं है जहाँ यहाँ के मानव पहुँच सके . या यो कहे कि हम कुँए के मेढक है कुँए के अन्दर से जितना ब्रम्हांड नज़र आता है उसी को हम पूरा ब्रम्हांड मान लेते है, शायद हमारा विज्ञानं भी उतनाही को ब्रम्हांड मान लिया है जितना उसको नज़र आता है .
हम सभी मानव, जीव-जंतु, पेड़-पौधा मृत्युलोक के वासी है और मृत्यु ही सत्य है। अगर हम अपने पुरे जीवन कि गड़ना करे तो पाते है कि २३००० से २५००० दिन भी नहीं जी पाते है इस मृत्युलोक में और इसी २३००० दिनों में बचपन, जवानी और बुढ़ापा सब देख लेते है फिर इस शरीर का अंत हो जाता है। उस ब्रम्ह के रचे लिलाओ में से फिर कोई नया पात्र बनकर फिर से कोई नया जीवन जीते है। यह सिलसिला चलता ही रहता है, जबतक यह सृष्टि है।
उसकी सत्ता में न कोई धर्म है न कोई जाती है और नहीं उंच-नीच का भेद-भाव। यह मानव मस्तिष्क कि विकृति है जो इस मृत्युलोक में धर्म, जाती और उंच-नीच बाँट दिया है। उस अनजाने ब्रम्ह के अनेको नाम है जिसे धर्म के हिसाब से नाम दिए गए है जैसे - ईश्वर, अल्लाह, जीजश
उसकी उपस्थिति हर जगह है आप यकीन करे या नहीं करे ? यकीन करना या नहीं करना यह आपके ऊपर निर्भर करता है। अगर इस पृथ्वी पर जीवन है तो ब्रम्ह भी।
अपने यहाँ चार पुरुषार्थ गिनाये गए है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्छ। ये चारो निवंचन इशोपनिष के प्रथम श्लोक में आया है। मतलब यह कि जो सभी को अनुशासित करता है या जिसका आधिपत्य सब पर है " वही ईश्वर है " । उसे नहीं मानना स्व्यंग को भी झुठलाना है।
जो अपने को नहीं जानता वही ईश्वर को भी नहीं मानता है।

Saturday, August 7, 2010

बिहार का चुनावी जंग


बिहार में चुनाव का शंखनाद हो चूका है सभी पार्टियाँ अपने-अपने तरीके से शतरंज कि विशात पर मोहरे बिठाने शुरू कर दिए है। शह और मात का खेल शुरू होने में अभी दो महिना बाकी, लेकिन अभी से सभी पार्टियाँ एक दुसरे से श्रेष्ट साबित करने पर तुली हुई है। भावी उम्मीदवार अपने-अपने छेत्र में अपने स्थिति का आकलन करने में लगे हुए है। दल बदलने कि राजनिति जोरो पर है एक दुसरे के उम्मीदवार को तोड़ने कि पुरजोर कोशिश शुरू है, भावी उम्मीदवारों को हर तरह के प्रलोभन दिए जा रहे है इसमे ऐसी भी पार्टियाँ है जिसे पिछले चुनाव में जनता ने नकार दिया था, अब वो नये-नये समीकरणों के साथ चुनावी जंग में अपने उम्मीदवारों को उतार रहे है। कुछ भावी उम्मीदवार ऐसे भी है जो अपनी गाड़ी में सभी पार्टियों का झंडा रखें है लेकिन डंडा एक ही है, जिस पार्टी के दफ्तर में जाना होता है उस पार्टी का झंडा उसी डंडे में लगा लेते है जिस डंडे में कुछ देर पहले किसी और पार्टी का झंडा था। कुछ भावी उम्मीदवार ऐसे भी है जिन्हें उनकी पार्टी अगर टिकट नहीं दे रही है तो वो दुसरे पार्टी कि सदस्यता ग्रहण कर लेते है क्यों कि दूसरी पार्टी उनको टिकट देने को बचनबद्ध है। कुछ पार्टियाँ दुसरे पार्टी के ऐसे नेता को तोड़ रही है जिनके हाथ में वोट बैंक है। कुछ उम्मीदवार अपने पार्टी से नाराज़ चल रहे है इसलिए दूसरी पार्टियों कि सदस्यता ग्रहण कर रहे है। ऐसा दृश्य चुनाव के समय ही दिखाई देता है। साम-दाम-दंड-भेद से परिपूर्ण हमारे भावी उम्मीदवार चुनावी जंग में दो-दो हाथ करने कि तैयारी पूरी कर ली है, इंतजार है तो बस रेफरी के सिग्नल का पिछला आम सभा चुनाव शांतिपूर्ण माहौल में संपन्न हुआ था क्यों कि उस समय राष्टपति शासन था पिछले पांच सालों में करीब ४९ हजार अपराधियों को न्यायलय द्वारा शज़ा सुनाई गई है इसलिए इस बार का भी चुनाव शांतिपूर्ण ही होगा बिहार में ऐसे तो छेत्रिय एवं राष्ट्रिय स्तर कि पार्टियाँ है लेकिन ज्यादा बोल-बाला छेत्रिय पार्टी का ही है अगला जो विधानसभा चुनाव होने जा रहा है उसमे दो पार्टियों के बीच ही सीधा संघर्ष देखने को मिलेगा, पहला जनता दल यु तथा दूसरा आर.जे.डी. , जनता दल यु के साथ भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन है तथा आर.जे.डी का लोक जनशक्ति पार्टी से विगत पंद्रह साल तक आर.जे.डी कि सरकार बिहार कि सत्ता में भागीदारी निभा चुकी है, पिछले पांच साल से जनता दल यु एवं बी.जे.पी कि सरकारअब किस पार्टी से किसका चुनावी गठजोर होता है यह समय बताएगा
आज़ादी के बाद से जीतनी भी सरकारें सत्ता में आई है उन में से किसी ने भी बिहार के दशा और दिशा को नहीं बदला है। चाहे वह कांगेस कि सरकार हो, जनता पार्टी कि सरकार या रास्ट्रीय जनता पार्टी कि सरकार हो, किसी ने भी बिहार के प्रति सकारात्मक सोंच नहीं बनाई जिसका खामियाजा आज बिहार को भुगतना पड़ रहा है। आज बिहार के विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए दुसरे राज्यों को जाते है। बिहार में रोज़गार नहीं होने के कारण यहाँ से पढ़े लिखे या मजदूरों का पलायन दुसरे राज्यों में होता है। उत्तर बिहार में हर साल बाढ़ आती है लेकिन उसका सही समाधान नहीं होने के कारण करोडो रुपये का नुकसान बिहार को उठाना पड़ता है, वहाँ कि जनता का जो नुकसान होता है सो अलग। वर्तमान में सत्ता पर आसीन जनता दल यु और भारतीय जनता पार्टी कि सरकार कि सोंच सकारात्मक है, यह बिहार के लिए सोंच रही है विगत पांच वर्षों में इनकी सरकार ने सड़के बनवाई, लो एंड ऑडर दुरुस्त हुए, यानी कानून का राज कायम हुआ, कुछ कॉलेज खुले है कुछ कॉलेज खुलने कि स्थिति में है, मजदूरों का पलायन कुछ हद तक कम हुआ है। आगे किसी कि भी सरकार बने उसको बिहार के लिए सोंचना पड़ेगा, बिहार के उन्नति के लिए सोंचना पड़ेगा, मजदूरों और पढ़े-लिखे लोगों के पलायन को रोकने के लिए रोज़गार बढ़ाने के उपाय सोंचना पड़ेगा, विद्यार्थियों के उच्च शिक्षा के लिए बहुत सारे युनिवरसीटी एवं कॉलेज खोलना पड़ेगा, लो एंड ऑडर और कड़ा करना पड़ेगा, उत्तरी बिहार को बाढ़ कि विभीषिका से बचाने के लिए ठोस कदम उढ़ाने पड़ेंगे, बांध को मजबूत बनाना पड़ेगा, डैम बनाने होगे ताकि जो पानी कहर बनकर आता है उससे सिंचाई का काम लिया जाय तथा बिजली का उत्पादन किया जाय। बाढ़ का कहर उत्तरी बिहार में हर साल आता है लाखों लोग उस बाढ़ से प्रभावित होते है हजारो जाने जाती है जान-माल कि छति हर साल होती है, वहाँ के रहने वाले लोग दोषी नहीं है यह सरकार कि गलती है कि उसने इस पर ध्यान नहीं दिया, अगर ध्यान दिया गया होता तो आज उत्तर बिहार में बाढ़ नहीं आता।
अगले चुनाव में नितीश कुमार कि सरकार रहे या न रहे, लेकिन नितीश कुमार ने जो बुनियाद डाली है जो बिहार के लिए सपने देखे है उसी का अनुसरण सभी को करना पड़ेगा।

Friday, August 6, 2010

टेलीविजन

विज्ञानं के अदभुत चमत्कारों में दूरदर्शन (Telivision) एक ऐसा चमत्कार है जो हमारे घर के अन्दर या फिर हमारे दिलो में ऐसा स्थान बना लिया है जिसके बगैर हम सोंच भी नहीं सकते है। यह हमारी दिनचर्याओं से जुड़ा अनिवार्य वस्तु बन गया है। इसके घर में आने से अब दोस्तों कि कमियाँ नहीं खलती है बल्कि कोई मनपसंद प्रोग्राम के समय किसी का आना खलता है। यह जब से घर में आया है परिवार के सभी सदस्य एक ही जगह बैठते है लेकिन कोई किसी से बात नहीं करता है कोई शिकवा शिकायत नहीं सभी का ध्यान टीवी स्क्रीन के तरफ ही रहता है। अकेलेपन के एहसाश को इसने ख़त्म कर दिया है। कुछ जरूरी कार्य भी मनपसंद प्रोग्राम के वक्त टाल जाना आम बात है। इस पिटारे ने सभी का ध्यान रखा है, क्या बच्चा, क्या बुढा, क्या नौजवान लड़का, लड़की, क्या शादीशुदा जोड़ा। सभी के लिए सभी तरह का प्रोग्राम इस पिटारे में देखने को मिल जायेगा। इस पिटारे ने अपनी अनिवार्यता ऐसी बनाई कि अब यह ड्राइंगरूम के साथ-साथ बेडरूम में भी अपनी उपस्थिति कायम कर ली, क्यों कि इस पिटारे में बहुत से ऐसे भी प्रोग्राम आते है जो हम पुरे परिवार के साथ नहीं देख सकते है। कभी-कभी इस पिटारे में कुछ ऐसे दृश्य भी जाते है जिसके चलते एक दुसरे से नज़रे भी चुरानी पड़ती है। थोड़े संपन्न परिवार में हर रूम में इस पिटारे ने अपनी उपस्थिति बना ली है क्यों कि सभी अपना-अपना पसंदीदा प्रोग्राम देखते है। इस पिटारे में आपको दुनियाँ कि हर चीज देखने को मिल जाएगी। बच्चों के लिए कार्टून के बहुत से प्रोग्राम है तो बूढ़े बुजुर्गो के लिए धार्मिक प्रवचन के, नौजवान पीढ़ी के लिए भी बहुत से प्रोग्राम है अगर आप खेल-कूद पसंद करते है तो निराष नहीं होइए आपके लिए भी इसमें प्रोग्राम है, चाहे आप किसी भी छेत्र या विचारधारा से सम्बन्ध रखते है, आप सभी के लिए इस जादुई पिटारे में प्रोग्राम ही प्रोग्राम है ... बश शर्त यह है कि रिमोट का बटन दबाते रहिये आपका मनपसंद प्रोग्राम जरूर देखने को मिल जायेगा, यह इस जादुई पिटारे कि गारंटी है। इस पिटारे में इतना प्रोग्राम भरा हुआ है जो आप सोंच भी नहीं सकते है, आपका समय कम पड़ जायेगा लेकिन इस पिटारे का प्रोग्राम ख़त्म नहीं होगा।
अब इस पिटारे ने हमारे मनोरंजन का ध्यान रखते हुए सामानों के बारे में भी बताने लगा है, उसकी अनिवार्यता बताने लगा है। [मतलब यह कि हमारे घर के अन्दर में यह सामान बेचने लगा है] बच्चे प्रतिदिन कुछ नये-नये वस्तुओं कि फुरामाइश करते है तो पत्नी कुछ अलग फुरामाइश करती है। मतलब यह कि इस पिटारे ने मनोरंजन तो किया लेकिन साथ-साथ परेशानियां भी बढ़ा दी। यानी कल तक जो पैसे ज्यादा लगते थे अब वो कम पड़ने लगे है। इस पिटारे में जितने भी पारिवारिक सीरियल आते है उसमे केवल अमीरी ही दिखाई देती है लगता है किसी राजा महराजा के परिवार कि कहानियां देख रहे है। यह सब देख बच्चे भी वैसा ही व्यवहार करते है। इस जादुई पिटारे ने हमारे जीवन कि दिनचर्या ही बदल दी है, अब संध्या में गाँव के चौपाल पर दोस्तों कि जमघट नहीं लगती है क्यों कि अब दोस्त अपने-अपने घरों में इस पिटारे के सामने बैठे अपना पसंदीदा कोई प्रोग्राम देख रहे होते है। यह पिटारा जब से घर में आया है अपनों से दूर कर दिया है अब कोई भी घटना कि ख़बर लेने के लिए किसी से पूछने कि जरुरत नहीं है बस रिमोट का बटन दबाइए और चलचित्र सहित पूरी जानकारियां ले लीजिये, इस पिटारे ने अपने अन्दर पूरी दुनियां ही समाहित कर ली है
यह पिटारा जब से आया है समाज का दशा और दिशा दोनों बदल दिया है बाजारवाद का पूरा असर इस पिटारे पर पड़ा है आज यह पिटारा प्रचार का सबसे सशक्त मध्यम बन गया है चाहे वह किसी कम्पनी का सामान बेचना हो या चार चक्के कि गाड़ी, फैसन से जुड़े कपडे या जूते-चप्पल, बिउटी टिप्स लेनी हो या खाना बनाने के तरीके सिखनी हो, अंडर गारमेंट्स बेचने हो या सिनेट्री पैड, कंडोम किस-किस का जिक्र करूँ अच्छे और बुरे सभी सामान इस पिटारे के माध्यम से हमारे और आपके ड्राइंगरूम में बेचते है, राजनितिक पार्टियाँ भी पीछे नहीं है वो भी इस पिटारे का इस्तेमाल भरपूर करती है और इसके माध्यम से अपना चुनाव प्रचार करती है इस पिटारे का ही देन है कि आज गाँव-गाँव में फैसन नज़र आने लगा है अब लड़कियां जींस और टोप्स में ज्यादा नज़र आने लगी है, लड़के भी ज्यादातर जींस में ही नज़र आते है, अब समीज-सलवार बीते युग का ड्रेस हो गया है या यूँ कंहे बेटियों ने जींस और टोप्स अपनाया तो मांओ ने उनका छोड़ा हुआ समीज-सलवार अपना लिया इस पिटारे ने हमारे भारतीय संस्कृति पर प्रहार किया है और पाश्चात्य सभ्यता का प्रचार किया है इस पिटारे ने परदे के अन्दर कि चीजों को परदे पर दिखाना शुरू कर दिया है, अब यह पिटारा ज्ञान या मनोरंजन का पिटारा ना रहकर मुसीबतों का पिटारा बनता जा रहा है बुराई में जितना आकर्षण है उतना अच्छाई में नहीं है और यह पिटारा अच्छा बुरा हर चीज दिखता है



Wednesday, August 4, 2010

स्वतंत्र भारत

१५ अगस्त १९४७ दिन शुक्रवार को दो सौ सालों से जंजीरों में कैद भारत आज अपनी बेड़ियों को तोड़ कर आज़ादी क़ा जश्न मना रहा है, खुली फिजा में सांश ले रहा है। आज मौसम भी बहुत सुहाना है, नीले आसमान में परिंदे चहलकदमी कर रहे है, सूर्य कि लाल किरणे अँधेरे को चीरती हुई उजाले का प्रकाश बिखेर रही है और भारत को निरंतर आगे बढ़ने का संदेस दे रही है। हर तरफ ढोल और नगाड़े कि आवाज़ सुनाई दे रही है मन-मयूर झुमने को विवश कर रहा है। सड़कों पर भीड़ ही भीड़ नज़र आ रही है हर चेहरों पर एक मुस्कान है जो यह जताता है कि गुलामी से मुक्ति के बाद खुली हवा में सांश लेने का अहसाश ही कुछ और है। आज हम स्वतंत्र है, हमारे हाथो और पावों की बेड़ियाँ कट चुकी है, जिस चहरे को देखो, अबीर-गुलाल लगाये खुशियाँ मना रहा है, मनो होली मना रहा हो, संध्या होते ही लोगों ने अपने घरों के मुरेड पर घी का दीप जलाने लगे है जैसे दीवाली मना रहे हो। कुछ ऐसा ही दृश्य रहा होगा जिस दिन भारत को आज़ादी मिली थी। इस आज़ादी को पाने के लिए कितने लोगों ने कुर्बानियां दी है, कितनी यातनाये सही है, तब जाकर भारत को आज़ादी मिली है। लेकिन उस आज़ादी का फायदा अगर किसी को मिला है तो वह हमारे राजनेताओं और पूंजीपतियों को। आज देश में समानता नहीं है इसलिए अमीरी और गरीबी के बीच एक गहरी खाई है जिसे कोई भी राजनेता या कोई भी पार्टी इसे पाटने कि कोशिश नहीं कि, इसका खामियाजा आज देश को भुगतना पड रहा है। आतंकवाद, नक्सलवाद इसी का देन है। भारत कृषि प्रधान देश है लेकिन कृषि को उद्योग का दर्जा नहीं मिला, अगर उद्योग का दर्जा मिला होता तो आज किसान एक अच्छी जिंदगी बसर करते, गाँव के लोगों का पलायन शहरों में नहीं होता। आज गाँव के किसान ही शहरों में मजदूरी करते है, ढेला, रिक्शा और ऑटो रिक्शा चलाते है। अगर गाँव में रोजगार होता तो गाँव के लोग शहर कभी नहीं जाते। सत्ता पर आशिन कोई भी पार्टी इस पर ध्यान नहीं दिया। आज देश को आज़ादी मिले ६३ साल हो गया लेकिन देश कि पूरी आबादी अभी भी पूरी तरह साक्षर नहीं है, क्या हमारे राजनेतावों कि यह चुक नहीं ? अभी भी बहुत से ऐसे गाँव है जहाँ बिजली, पानी, सड़क, स्कूल कुछ भी नहीं है फिर भी वहां के लोग इसे नियति मान कर जी रहे है। इन लोगों को यह भी नहीं मालूम कि ये आज भी गुलाम है या आज़ाद है क्यों कि इनके जीवन में आज़ादी के बाद भी कोई तब्दीलियाँ नहीं आई। क्या हक बनता है इन राजनेताओं को उन लोगों से वोट लेने का ? जब आप उन्हें कुछ भी सुविधा नहीं दे सकते है तो किस हक से आप उनसे वोट मांगते है। बिहार कि आधा से ज्यादा आबादी हर साल बाढ़ के चपेटे में आती है, गाँव के गाँव बाढ़ में बह जाते है, जान-माल कि जो छति होती है सो अलग। जिसका सब कुछ बर्बाद हो जाता है कुछ भी उसके पास नहीं रहता वो शहर के लिए पलायन करता है, शहर में भी उसे काम नहीं मिलता, अंत में जीने के लिए वह भीख मांगने लगता है, इस तरह भिखारियों कि संख्या हर साल बढती जाती है। क्या सरकार ने राजनेतावों ने कभी इस पर ध्यान दिया है ??? नहीं,,, अगर ध्यान दिया होता तो बाढ़ के पानी का रूख बदल दिया गया होता और जो पानी आज कहर बन कर आता है वो खेतों में सिंचाई के काम आता, खेतों में फसलें लहलहाती। बाढ़ में सब कुछ गंवाए हुए लोगों को ये राजनेता चना, सत्तू, चुरा, नमक और कपडे बांटते है ताकि तुम मर-मर के जीते रहो और मुझे वोट देते रहो। तुम चुरा और नमक पर अपनी जिंदगी गुजरो ताकि मै मलाई खा सकूँ।
हमारे देश के राजनेतावों कभी तो इस देश को अपना समझो, जिसके वोट से तुम सत्ता कि सीढियाँ चढ़ते हो, उसके दुःख-दर्द को तो समझो। क्यों कि जनता है, तो तुम हो ..... अगर जनता नहीं है तो तुम भी नहीं हो !
[ फोटो में गरीब लड़का तिरंगा झंडा बेच रहा है ताकि पेट कि भूख मिटा सके ] यह स्वतन्त्रता नहीं ?

Monday, August 2, 2010

महंगाई डायन

लूट..लूट..लूट॥ जंहा देखो वही मची है लूट । आज महंगाई बे-लगाम हो गई है, बाज़ार में मंडी में जहाँ देखो महंगाई चरम सीमा पर पहुँच गई है। इस महंगाई से कोई भी वस्तु अछुती नहीं है। अब सौ रुपये का नोट दस रुपये का लगने लगा है। इन बे-तहासा बढ रही महंगाई पर अंकुश लगने वाला कौन है ? सरकार नाम कि वस्तु इस देश में नहीं। सरकार रहती तो जरूर इस महंगाई पर ध्यान देती, अगर जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है तो फिर क्यों नहीं ध्यान दे रही है ? इस आग में तो निरीह जनता ही जल रही है। सरकारें पांच साल के लिए बनती है, किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के कारण जोड़-तोड़ कि राजनिती कर किसी भी तरह पार्टियाँ सत्ता पर काबिज़ तो हो जाती है और उन पांच सालों को सत्ता बाचने में गुज़ार देती है, मतलब यह कि इनको जोड़-तोड़ से फुर्सत मिलेगी तब ना ये जनता के बारे सोचेंगे ?
बचपन में मैंने एक बार सर्कस देखी थी उसका आकर्षण मेरे मन-मस्तिष्क में ऐसी पैठ बनाई कि मै दिन के समय में भी सर्कस के तम्बू के आस-पास घूमते रहता था , उसी दरम्यान मेरे जेहन में एक बात घर कर गई ... इन सर्कस वालों कि अपनी दुनियां ही अलग है। ये आपस में ही एक दुसरे से शादी कर लेते है और सर्कस में ही जिंदगी गुज़ार देते है जब इनका बच्चा होता है तो वह भी सर्कस कि बारीकियों को सिख कर उसी सर्कस में काम करने लगता है और इनकी जिंदगी इसी तरह चलती है। वैसे ही फिल्मी दुनियां वालों कि भी जिंदगी अलग है वो चकाचौध से भरी जिंदगी जीने के आदि है इसलिए वो उस दुनियां से बाहर नहीं निकल पाते है और उसी में अपनी पूरी जिंदगी गुज़ार देते है, इनकी भावी पीढियां भी इसी में अपनी जिन्दगी तलाशती है। आर्मी में नौकरी किये लोग आम जिन्दगी में घुल-मिल नहीं पाते है क्यों कि वो एक अनुशासित जिन्दगी जीने के आदि हो चुके लोग है जहा अनुशासन नहीं है वहां अपने को मिक्स नहीं कर पाते है, इसलिए अनुशासित लोंगो के बीच अपनी दुनियां बसा लेते है।
ठीक इसी प्रकार हमारे देश के राजनेताओं कि भी एक अलग दुनियां है। ये सत्ता का खेल खेलने में माहिर लोग है, झुढ़, फरेब और मक्कारी से भरी जिन्दगी, आम लोगों को बेवकूफ बनाने कि कला में अव्वल ये राज नेता गरीबों का मसीहा बन गरीबों को ही लूट लेते है। १२० करोड़ जनता कि कमाई पर राज करने वाले इन राजनेतावों को महंगाई नज़र ही नहीं आ रही है ? क्या ये सावन के अंधे है जो इन्हें हर तरफ हरियाली ही हरियाली नज़र आ रही है ? हकीकत तो यह है कि इन लोगों का पेट भरा हुआ है इन्हें कैसे महंगाई नज़र आएगी। संवैधानिक तौर पर इनको हर चीज जो मुफ्त में मिली हुई है जैसे-भोजन, आवास, हवाई-यात्रा, रेल-यात्रा, बिजली, पानी, पेट्रोल, डीजल, चार चक्के कि गाड़ी और तो और ऊपर से तनख्वाह, अब ये बताइए कि ये जनता के लिए क्या सोचेंगे ? बस ये यही सोचते है कि अगले चुनाव में कौन सा सब्ज-बाग़ जनता को दिखाऊ ताकि मै फिर चुनाव जीत सकूँ और मुफ्त कि मलाई खाने को मिल सके, फिर महंगाई बढे या टैक्स इससे क्या अंतर पड़ता है। क्यों कि भारतीय जनता कि यादाश्त बहुत कमजोर है वह हर बात बहुत जल्दी भूल जाती है और इसी का फायदा हमारे राजनेता उठाते है।